त्रैलोक्य विजय अपराजिता स्तोत्र |
जैसा नाम वैसा ही इस स्तोत्र का काम अर्थात जैसा नाम है वैसा ही फल देता है |
त्रैलोक्य अर्थात तीनो लोको में जो पराजित ना हो ने दे तीनो लोको में जो विजय प्रदान करे ऐसा स्तोत्र त्रैलोक्य विजय अपराजिता स्तोत्र |
इस स्तोत्र के पाठ से नवग्रह दोष समाप्त हो जाते है, भूत-प्रेत आदि की बाधाओं से मुक्ति मिलती है, नकारात्मक शक्तियों का विनाश हो जाता है,
मनुष्य की सभी मनोकामना सिद्ध हो जाती है, जाने अनजाने किये गए या हुए पापो का विनाश हो जाता है, विद्यार्थो को विद्या प्रदान करता है,
निःसंतान को संतान प्राप्ति के द्वार खुल जाते है, सरकारी कामो में सफलता प्राप्त होती है, किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं रहता,
सभी प्रकार के उपद्रव शांत हो जाते है, शत्रु के द्वारा किये हुए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाओ का नाश कर देने में समर्थ है यह उत्तम स्तोत्र,
सभी प्रकार के विघ्न शांत हो जाते है इस स्तोत्र पाठ से,दुःस्वप्न शांत हो जाते है, सामाजिक मान सन्मान देने में समर्थ है यह स्तोत्र,
राजनीतिक सफलता प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए |
स्तोत्र करने की विधी
अपराजिता का अर्थ है,
जो कभी पराजित नहीं हुआ, विजयदशमी और देवी अपराजिता का सम्बन्ध क्षत्रिय राजाओं के साथ गहरा सम्बन्ध रखता है, अपराजिता क्षत्रियों की महादेवी है। अपराजिता देवी बहुत संहार कारणी महाशक्ति है, अपराजिता स्तोत्र का पाठ करने वाला या देवी की पूजा पू करने वाला साधक, विषम से विषम परिस्थतियों में भी पराजित नही हो सकता, अपराजिता देवी अपने भक्त को कभी भी पराजय का मुखमु नही देखने देती, जब सारे रास्ते बंद जाए, कोई रास्ता नही हो, तब भी अपराजिता देवी अपने भक्त को हस्ते-तेखेलते बचा ले जाती है, चाहे कितनी भी बड़ी से बड़ी मुसी मु बत हो।
सर्वप्रर्व थम देवी अपराजिता की पूजा पू , साधना, तब प्रारम्भ हुई थी, जब जब देवासुरसु संग्राम के दौरान नवदुर्गा दु ओ शक्ति ने दानवों के सम्पूर्णपू र्णवंश का नाश कर दिया था। उसी समय माँदुर्गा दु अपनी पीठशक्तिओं में से एक आदि शक्ति का प्रदुभा दु व किया, जिसे हम अपराजिता देवी के नाम से जानते है, उसी समय यह अपराजिता स्तोत्र/अपराजिता स्तोत्र के माध्यम से, माँअपराजिता की स्तुतितु हुई, उसके बाद माँ हिमालय में अंतअं र्ध्यान हो गयी। इसके बाद आर्यवर्य र्त के राजाओ ने विजय पर्व के रूप में विजय दशमी की स्थापना की, जो शरद ऋतू में नवरात्री के बाद दसमी तिथि के दिन, विजय दशमी के नाम से मनाई जाती है। विजय दशमी पर्व मूलतमू : देवताओं द्वारा दानवो पर विजय प्राप्ति के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसके पश्चात पुनपु : जब त्रेता त्रे युगयु में रावण के अत्याचारों से पृथ्पृवी एवं देव दानव सभी त्रस्त हुए तो पुनपु : पुरपुषोत्तम राम द्वारा दशहरे के दिन रावण का अन्त किया गया,
जो एक बार पुनपु : विजयदशमी के रूप में मनाये जाने लगा। अपरा जि ता स्तो त्र पा ठ वि धि :
अपराजिता स्तोत्र का पाठ किसी भी शुक्रवार से, शाम के समय (5:30-7:30Pm) या रात के समय (9:15-10:30Pm) के बीच, जिस समय आपका मन अंदरअं से शांत हो, लाल ऊनि आसन पर, पूर्वपूर्वया दक्षिण दिशा की तरफ मुखमु करके बैठेबै ठे, अपने समाने माँदुर्गा दु की मूर्तिमू र्तिया चित्र स्थापित करें, माँके सामने सरसों या तिल के तेलते का दीपक जलाये और अपने गले में अपराजिता गुटिका धारण करकें, अपने गुरु, पितृ,तृ इष्ट ओर अपराजिता देवी से, अपने कार्य में पूर्णपू र्णसफलता के लिए प्रार्थना र्थ करें, कमाना बोलते हुए माँदुर्गा दु के चरणों में 8 गुलाब, गुल्हड़ या लाल कनेर के पुष्पुप चढायें,यें पुष्पुप चढ़ाकर, सीधे हाथ में जल लेकर अपराजिता विनयोग करें, विनियोग के बाद जल भूमिभू पर छोड़ दे। इसके बाद उच्च स्वर में बोलते हुए, अपराजिता स्तोत्र के 8 पाठ 21 दिन तक करें, ऐसा करने से बड़ी से बड़ी बीमारी, कोर्ट केस, शत्रु,त्रुतंत्र बाधा, चुनाव, प्रतियोगिता आदि में 200 प्रतिशत सफलता मिलती है,
यह अजमाया हुआ प्रयोग है। अपरा जि ता स्तो त्र के ला भ: इस स्तोत्र से सभी नवग्रह का दोष, कालसर्प दोष, पितृ दोष, दरिद्र दोष, मांगलिक दोष आदि समाप्त हो जाता है। भूतभू -प्रेत आदि बाधाओं से मुक्ति मु मिलती है, नकारात्मक शक्तिओं का नाश हो जाता है। कार्य पर विजय प्राप्त करने के लिए संसार में इससें बड़ा कोई स्तोत्र नही है। मनुष्नुय की सभी मनोकामना सिद्ध होती है। जाने-अनजाने किये गए या हुए पापों का विनाश हो जाता है। विद्ध्यार्थियो र्थि को परीक्षा में निश्चित ही सफलता मिलती है। नि:सन्तान को सन्तान प्राप्ति के द्वार खुलखु जाते है। सरकारी कामो में सफलता प्राप्त होती है। किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं होता, सभी प्रकार के उपद्रव शांत हो जाते है। शत्रु के द्वारा किये हुए मारण, मोहन, उच्चाटन आदि तंत्र दोष नष्ट होते है। यदि बुरेबुरेकेस लग जाते तो, अवश्य ही अपराजिता स्तोत्र का पाठ करें। चुनाव में विजय प्राप्त होती है, सामाजिक सम्मान प्राप्त होता है। इस स्तोत्र के निरंतर पाठ से संक्रामक रोग (बर्डफ्र्ड लू,लूसॉर्स,र्स स्वाइनफ्लू,लूकरोनावायरस आदि) से रक्षा होती है। कैंसर, एड्स, हृदय रोग, त्वचा रोग आदि जैसेजै सेअसाध्य रोग शांत होते है
|| अपराजिता स्तोत्र ||
विनियोगः ॐ अस्या: वैष्णव्याः पराया: अजिताया: महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्कण्डेया ऋषयः | गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहति छन्दांसि | लक्ष्मी नृसिंहो देवता | ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजं हुं शक्तिः | सकलकामना सिद्ध्यर्थं अपराजित विद्यामन्त्र पाठे
विनियोगः |
इस पाठ के वामदेव, बृहस्पति, मार्कण्डेय ऋषि है, गायत्री अनुष्टुप बृहति छन्द है,
लक्ष्मी नरसिम्हा ( नृसिंह ) देवता है, क्लीं, श्रीं, ह्रीं, हुं शक्ति है,
और सकलकामना सिद्धि अर्थ के लिये इसका पाठ करने का विनियोग है |
ॐ नीलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्वितं |
शुद्धस्फटिकसंकाशां चन्द्रकोटिनिभाननां || १ ||
शङ्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजितं |
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीं || २ ||
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः || ३ ||
श्री मार्कण्डेय उवाच
शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम |
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजितं || ४ ||
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय, नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्त्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने, शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुड़वाहनाय, अमोघाय अजाय अजिताय पीतवाससे,
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रीव, मत्स्य,कूर्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम |
वरद वरद वरदो भव, नमोस्तुते, नमोस्तुते स्वाहा,
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत-पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्द्गृहान
उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांंश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विंध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शंखेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा |
ॐ सहस्त्रबाहो सहस्त्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्त्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषिकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबंधविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्व्जवरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोस्तुते स्वाहा |
ॐ विष्णोरियमानुपप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा |
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी || ५ ||
सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा |
नानया सदृशं किञ्चिदुष्टानां नाशनं परं || ६ ||
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता |
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्वगुणाश्रया || ७ ||
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं |
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये || ८ ||
अथातः संप्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजितम |
याशक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता || ९ ||
सर्वसत्वमयी साक्षात्सर्वमंत्रमयी च या |
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता |
सर्वकामदुघा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते || १० ||
य इमां पराजितां परमवैष्णवीं प्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां
जपति पठति श्रुणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं
न समुद्रभयं न ग्रहभयं न चौरभयं
न शत्रुभयं न शापभयँ वा भवेत् |
क्वचिद्रात्र्यंधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि विषगरगरदवशीकरण
विद्वेषोच्चाटनवध बन्धनंभयं वा न भवेत् | एतैर्मन्त्रैरुदाह्यतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः |
ॐ नमोस्तुते | अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे, जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, ऐकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुंधति, गायत्री, सावित्री, जातवेदसि,मानस्तोके,सरस्वती, धरणि, धरणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारी, मातङ्गी,कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनी, कालि, कपालिनी,करालनेत्रे, भद्रे,निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं, जलगतं, अंतरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा |
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि |
भ्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् || ११ ||
धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते |
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः || १२ ||
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः |
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् || १३ ||
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् |
शस्त्रं वारयते ह्येषा समरे काण्ड़दारुणे || १४ ||
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम |
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनां || १५ ||
इत्येषा कथिता विद्या अभयाख्या अपराजिता |
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते || १६ ||
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः |
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः || १७ ||
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः |
अग्नेर्भयं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात || १८ ||
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च |
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा || १९ ||
न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया |
पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा || २० ||
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान |
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजां || २१ ||
रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसम्प्रभां |
पाशांकुशाभयवरैरलंकॄतसुविग्रहां || २२ ||
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मंत्रवर्णामृतान्यपि |
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमं || २३ ||
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा |
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि |
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रिया प्रियते तु मां || २४ ||
ॐ अथातः संप्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलां |
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीं || २५ ||
दारिद्रदुखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनिं |
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसां || २६ ||
डाकिनी शाकिनी स्कन्द कूष्माण्डानां च नाशिनिं |
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीं || २७ ||
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः |
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रुणु || २८ ||
एकाह्निकं ध्वह्निकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकं |
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थमासिकं || २९ ||
पाँचमासिकं षाङ्गमाँसिकं वातिक पैत्तिकज्वरं |
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततजवरं || ३० ||
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं |
द्वहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा |
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता || ३१ ||
ॐ ह्रं हन हन कालि शर शर गौरि धम धम
विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये
नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःस्वप्नविनाशिनी कमलस्थिते विनायकमातः
रजनि संध्ये दुन्दुभिनादे मानसवेगे शङ्खिनी चक्रिणी गदिनी वज्रिणी शूलिनी अपमृत्युविनाशिनी
विश्वेश्वरी द्रविड़ी द्राविड़ी द्रविणि द्राविणी केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनी दुर्म्मददमनी
शबरि किराती मातङ्गी ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु |
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं हैं ह्रौं ह्रः ॐ ॐ श्रां श्रीं श्रुं श्रैं श्रौं श्रः ॐ क्ष्वौ तुरुतु तुरुतु स्वाहा।
ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान सर्वान दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि ब्रह्माणि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंही ऐन्द्रि चामुण्डे महालक्ष्मी वैनायिकी औपेन्द्री आग्नेयी चण्डी नैऋति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इंद्रोपेन्द्रभगिनि |
ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति तुष्टि पुष्टि विवर्द्धिनि कामांकुशे कामदुघे सर्वकामवरप्रदे |
सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा |
आकर्षणि आवेशनि ज्वालामालिनी रमणि रमणि धरणी धारिणी तपनि तापिनी मदनि मादिनी शोषणी सम्मोहिनि |
नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये |
महाचान्द्री महासौरि महामायूरी आदित्यरश्मि जाह्नवि |
यमघण्टे किणी किणी चिंतामणि |
सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे |
यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्धतु स्वाहा |
ॐ स्वाहा | ॐ भूः स्वाहा | ॐ भुवः स्वाहा | ॐ स्वः स्वाहा | ॐ महः स्वाहा | ॐ जन: स्वाहा | ॐ तपः स्वाहा |
ॐ सत्यं स्वाहा | ॐ भूर्भुवः स्वाहा |
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्यों |
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता || ३२ ||
स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा |
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता || ३३ ||
नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्यते |
तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता || ३४ ||
कृतान्तोपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः |
मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत || ३५ ||
नीलजीतमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकां |
उद्यदादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम || ३६ ||
शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च बिभ्रतीं |
व्याघ्रचर्मपरिधानां किङ्किणीजालमण्डितं || ३७ ||
धावंतीं गगनस्यान्तः पादुकाहितपादकां |
दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां || ३८ ||
व्यात्तवक्रां ललजिह्वां भुकुटीकुटिलालकां |
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः || ३९ ||
सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात |
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयंतीं मुहुर्मुहुः || ४० ||
पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तदन्तिके |
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलां || ४१ ||
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके |
तस्य तस्य तथावस्थं कुरुते सापियोगिनी || ४२ ||
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति |
अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं || ४३ ||
श्रीमद्पाराजिताविद्यां ध्यायेत |
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च |
व्यवहारे भवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये || ४४ ||
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया
विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीड़ितं |
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु में
सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां || ४५ ||
ॐ तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि |
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः || ४६ ||
|| श्री दुर्गार्पणं अस्तु ||
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